देखा बहुत कश्मीर कभी, पंडित वहां से भागे थे
दास्ताने खूब सुनी ,हम हिन्दू कभी ना जागे थे..
कीर्तन से होती शाम मेरी, अजान से नया सवेरा था
उस रोज जो मेरी आँख खुली, पलकों तले अँधेरा था..
सोंचा था जो अपना है, वो भाई मगर लुटेरा था
अल्पसंख्यक हिन्दू था जो, सबसे बड़ा बखेड़ा था..
तुमने कहा अल्लाह है, अल्लाह को भी मान लिया
फिर अल्लाह के बन्दे को, काफिर कैसे नाम दिया..
गूंज है तेरी गलियों में , पर मेरे घर सन्नाटा है
मैं काफिर कैराने का , मेरा राम-रहीम से नाता है ..!!
भास्कर सुमन
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